Wednesday, May 31, 2006

The president. Dr. Kalam

Couldnot stop myself.. I kept on reading this website. Thought I need to deliver my work also. So want to link this great website about Dr. A. P. J. Kalam in my Blog.
Here it is http://www.presidentofindia.nic.in/

Friday, May 05, 2006

तुम भूल न जाओ उनको

Didn't want to loose it

लता मन्गेश्कर का गाया यह गीत, देशभक्ति गीतों में सबसे परे है. कहते हैं एक बार यह गीत सँसद में सुनाया गया जहाँ प्रधान-मन्त्री नेहरु भी मौजूद थे, और इस गीत को सुनकर वे भी अपने आँसू नहीं रोक सके थे:

ऐ मेरे वतन के लोगों, तुम खूब लगा लो नारा
ये शुभ दिन है हम सब का, लहरा लो तिरंगा प्यारा
पर मत भूलो सीमा पर, वीरों ने है प्राण गँवाए
कुछ याद उन्हें भी कर लो -२
जो लौट के घर न आये -२

ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो क़ुरबानी

जब घायल हुआ हिमालय, खतरे में पड़ी आज़ादी
जब तक थी साँस लड़े वो, फिर अपनी लाश बिछा दी
संगीन पे धर कर माथा, सो गये अमर बलिदानी
जो शहीद...

जब देश में थी दीवाली, वो खेल रहे थे होली
जब हम बैठे थे घरों में, वो झेल रहे थे गोली
थे धन्य जवान वो आपने, थी धन्य वो उनकी जवानी
जो शहीद...

कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई गुरखा कोई मदरासी
सरहद पर मरनेवाला, हर वीर था भारतवासी
जो खून गिरा पर्वत पर, वो खून था हिंदुस्तानी
जो शहीद...

थी खून से लथ-पथ काया, फिर भी बन्दूक उठाके
दस-दस को एक ने मारा, फिर गिर गये होश गँवा के
जब अन्त-समय आया तो, कह गये के अब मरते हैं
खुश रहना देश के प्यारों, अब हम तो सफ़र करते हैं
क्या लोग थे वो दीवाने, क्या लोग थे वो अभिमानी
जो शहीद...

तुम भूल न जाओ उनको, इस लिये कही ये कहानी
जो शहीद...

जय हिन्द... जय हिन्द की सेना
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द

(प्रदीप)

॥ श्री राम स्तुति ॥

श्री राम चालीसा का यह छँद शायद सबसे अधिक प्रसिद्ध है. भक्ति-भावना से ओत-प्रोत होने के साथ-साथ इसमें काव्य भी भरा हुआ है:

श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं ।
नवकंज-लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनील-नीरद सुन्दर ।
पटपीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ॥

भजु दीन बन्धु दिनेश दानव दैत्यवंश-निकन्दनं ।
रघुनन्दन आनन्द कंद कौशलचन्द दशरथ्-नन्दनं ॥
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं ।
आजानु-भुज-शर-चाप-धर- संग्राम जित-खरदूषणं ॥

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजन ।
मम हृदय-कंज निवास कुरु कामादि खलदल-गंजन ॥
मनु हाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो ।
करुणा निधाअन सुजान सील सनेह जानत रावरो ॥

एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषी अली ।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥